MUMBAI. महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों का बवाल जारी है। 30 अक्टूबर को मामला तब राष्ट्रीय सुर्खियों में आया, जब आंदोलनकारियों ने NCP अजीत पवार गुट के विधायक प्रकाश सोलंके के घर और दफ्तर पर पथराव कर दिया। मामले में महाराष्ट्र के कई शहरों में तोड़फोड़ की घटानाएं सामने आ चुकी हैं। एक पहले ही एनसीपी के दो विधायकों के घरों में आग लगा दी गई, वहीं शिंदे गुट के दो सांसदों ने अंदोलनकारियों के समर्थन में इस्तीफे दे दिए। मराठा आरक्षण की मांग हाल ही की नहीं है, इसको लेकर पिछले 42 सालों से संघर्ष किया जा रहा है। अब तक 50 से ज्यादा लोगों की जान जाने का दावा किया जा रहा है। सबसे पहली मौत इस आंदोलन को शुरू करने वाले नेता अन्नासाहेब पाटिल की थी। तत्कालीन कांग्रेस (आई) सरकार की अनदेखी से नाराज होकर 1982 में उन्होंने खुद को गोली मार ली थी। इसके बाद से आंदोलन और तेज हो गया। 42 साल पुराने मराठा आरक्षण आंदोलन के मामले के आखिर पेंच कहां अटका है... आइए जानते हैं खास रिपोर्ट में...
26 जुलाई 1902 : छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज का फरमान
छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज और कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी ने 26 जुलाई 1902 को एक फरमान जारी किया। इसमें कहा गया कि उनके राज्य में जो भी सरकारी पद खाली हैं, उनमें 50 प्रतिशत आरक्षण मराठा, कुनबी और अन्य पिछड़े समूहों को दिया जाए। यह एक ऐसा फैसला था, जिसने आगे चलकर आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था करने की राह दिखाई। मराठा समुदाय भी इसे ही अपनी मांग का आधार बताता है। 1942 से 1952 तक बॉम्बे सरकार के दौरान भी मराठा समुदाय को 10 साल तक आरक्षण मिला था। इसके बाद मामला ठंडा पड़ गया।
22 मार्च 1982 : पहला संघर्ष आंदोलन शुरू
भारत की आजादी के बाद मराठा आरक्षण के लिए पहला संघर्ष मजदूर नेता अन्नासाहेब पाटिल ने शुरू किया। उन्होंने अखिल भारतीय मराठा महासंघ की स्थापना की थी। 22 मार्च 1982 को अन्नासाहेब पाटिल ने मुंबई में मराठा आरक्षण समेत अन्य 11 मांगों के साथ पहली रैली निकाली। उन्होंने कहा था कि अगर मराठा समुदाय को आरक्षण नहीं मिला तो मैं सुसाइड कर लूंगा। इसमें हजारों लोग इकट्ठा हुए। उस समय महाराष्ट्र में कांग्रेस (आई) सत्ता में थी और बाबासाहेब भोसले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। विपक्षी दल के नेता शरद पवार थे। शरद पवार तब कांग्रेस (एस) पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मुख्यमंत्री ने आश्वासन तो दिया, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाए। इससे अन्नासाहेब नाराज हो गए। अगले ही दिन 23 मार्च 1982 को उन्होंने अपने सिर में गोली मारकर आत्महत्या कर ली। इसके बाद सियासत शुरू हो गई। सरकारें गिरने-बनने लगीं और इस राजनीति में मराठा आरक्षण का मुद्दा ठंडा पड़ गया।
1991 : सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया?
पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 1991 में आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10% आरक्षण देने का आदेश जारी किया था। इस पर इंदिरा साहनी ने उसे चुनौती दी थी। इस केस में नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित सीटों, स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया गया है। तब से यह कानून ही बन गया। राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल जब भी आरक्षण मांगते तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आड़े आ जाता है।
2019 : 11 जजों की संवैधानिक बेंच बनाने की उठी मांग
मराठा आरक्षण के मसले पर जब सुनवाई चल रही थी तो मुकुल रोहतगी, कपिल सिब्बल और अन्य वकीलों ने दलील दी कि 1992 से अब तक के हालात में काफी कुछ बदलाव हो गया है। ऐसे में राज्यों को यह तय करने का अधिकार देना चाहिए।
दलील दी गई कि नरेंद्र मोदी सरकार ने जब 2019 में आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया, तब संविधान में संशोधन किया गया। इसमें इंदिरा साहनी केस का फैसला आड़े नहीं आया। इससे 28 राज्यों में कुल आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर निकल गई है। ऐसे में इंदिरा साहनी केस में सुनाए फैसले की समीक्षा होनी चाहिए।
चूंकि इंदिरा साहनी केस में 9 जजों की बैंच ने फैसला सुनाया था। यदि उस फैसले को पलटना है या उसका रिव्यू करना है तो नई बेंच में नौ से ज्यादा जज होने चाहिए। इसी वजह से 11 जजों की संवैधानिक बेंच बनाने की मांग हो रही है।
संविधान में संशोधन : राज्यों में 50% से ज्यादा आरक्षण का तर्क
केंद्र ने संविधान में संशोधन कर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया। उससे पहले से ही तमिलनाडु में सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में 69% आरक्षण दिया था। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो तमिलनाडु ने कहा था कि राज्य की 87% आबादी पिछड़े तबकों से है। हरियाणा विधानसभा में जाटों के साथ-साथ नौ अन्य समुदायों को 10% आरक्षण दिया गया था। इससे राज्य में कुल आरक्षण 67% हो गया था। सुप्रीम कोर्ट के मराठा आरक्षण रद्द करने से पहले तक महाराष्ट्र 65% के साथ सूची में तीसरे नंबर पर था। तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और राजस्थान में 62, 55 और 54 प्रतिशत आरक्षण है। इस तरह सात राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण देने के पहले से लागू था, वहीं 10 राज्यों में 30 से 50% तक आरक्षण लागू था।
वर्तमान हालात : मराठा आरक्षण के मुद्दे पर क्या है हलचल
- निजाम युग में मराठवाड़ा क्षेत्र में मराठों को कुनबी माना जाता था और वे ओबीसी श्रेणी में थे। हालांकि, जब यह क्षेत्र महाराष्ट्र में शामिल हो गया तो उन्होंने यह दर्जा खो दिया।
- मराठा कोटा नेता मनोज जारांगे-पाटिल जैसे कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि मराठों को फिर से कुनबी के रूप में वर्गीकृत किया जाए, जिससे वे ओबीसी आरक्षण के लिए पात्र बन जाएं।
- अगस्त में जारांगे-पाटिल ने अपने गांव अंतरवाली सारथी में विरोध प्रदर्शन और अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की। 1 सितंबर को विरोध हिंसक हो गया और सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा।
- महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने सितंबर में जालना के अंतरवाली-सरती में मनोज जरांगे-पाटिल को जूस पिलाकर भूख हड़ताल तुड़वाई।
- मुख्यमंत्री शिंदे ने घोषणा की कि कैबिनेट ने मराठवाड़ा के मराठों को कुनबी जाति प्रमाण पत्र देने का संकल्प लिया है। इसके लिए पैनल ने दो महीने की मांग की।
- जारांगे पाटिल ने 14 अक्टूबर को जालना जिले में एक विशाल रैली में कहा कि 24 अक्टूबर के बाद या तो मेरा अंतिम संस्कार जुलूस होगा या समुदाय की जीत का जश्न होगा।
- शिंदे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हुए सभी प्रमुख मराठी समाचार पत्रों में प्रमुख विज्ञापन चलाए।
- मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जारंगे जालना के अंतरौली में 6 दिन से भूख हड़ताल पर हैं। शिंदे ने कहा- मनोज जरांगे से मेरी अपील है कि वे हमें थोड़ा समय दें। सरकार को उनकी तबीयत की चिंता है। उनसे अपील है कि वो दवा-पानी लें। इस बीच, राज्य में 11 दिनों में 13 लोग सुसाइड कर चुके हैं।